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हिंदी के व्यापक दायरे को समझे बगैर हिंदी-हिंदी चिल्लाना बेमानी

...आओ 'हिंदी दिवस' मन
...आओ 'हिंदी दिवस' मन
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जिस देश में हिंदी दस से भी अधिक राज्यों में बोली जाती हो, सिनेमा, फ़िल्मी गीतों आदि के क्षेत्र में जिस भाषा का इतना बड़ा बाज़ार हो, और तो और जो भाषा ‘राष्ट्र भाषा’ बनने का दावा करती हो उसका एक ख़ास दिवस मनाने का अपना ही एक मज़ा है. सरकारी दफ्तरों में हिंदी पखवाड़े का आयोजन, हिंदी बोलने और लिखने की कसमें, संविधान की दुहाई ये सब रोचक कारनामे इस मज़े में चार-चाँद लगाते हैं. फिर, महज़ दस से पंद्रह दिवस चलने वाला ये राष्ट्रीय पर्व न चाहते हुए भी समापन की ओर बढ़ता है और हम बेसब्री व उत्सुकता से अगले वर्ष का इंतजार करने लगते हैं.


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इस कार्यक्रम को पूरे तन-मन से करके हम अपने मौलिक कर्तव्यों की पूर्ति तो कर लेते हैं, लेकिन इस बात में मगज़ खपाने की जरूरत नहीं समझते या समझना ही नहीं चाहते कि आख़िर ‘हिंदी’ किस चिड़िया का नाम है? आम जनता तो आम है ही, सरकारी महकमे भी इस नज़रिए से फिसड्डी साबित हुए हैं.


अब हाल की एक घटना पर नज़र डाले तो विश्व भर में हिंदी को वैश्विक भाषा के रूप में प्रचारित करने वाले मानव संसाधन विकास मंत्रालय (MHRD) के एक शैक्षणिक संस्थान ‘केंद्रीय हिंदी संस्थान’ ने हिंदी की क्लासिकल रचना मानी जाने वाली प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ को पाठ्यक्रम से निकाल बाहर फेंका है.


नेशनल हेराल्ड से बात करते हुए संस्थान की रजिस्ट्रार प्रो. वीना शर्मा ने बताया की पांच सदस्यीय समिति के फैसले के बाद ‘गोदान’ अब हिंदी भाषा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम ( पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा जिसकी विदेशी छात्रों और शोधार्थियों के लिए दिल्ली और आगरा में 100 सीटें हैं) का हिस्सा नहीं रहा. प्रशासन ने दलील दी है कि-


1. शिक्षक और विद्यार्थियों की ओर से लगातार शिकायतें आ रही थी कि ‘गोदान’ बहुत लम्बा उपन्यास है, इसे एक वर्ष में पढ़ना-पढ़ाना चुनौतीपूर्ण है.


2.उपन्यास की ग्रामीण पृष्ठभूमि और इसमें प्रयुक्त अवधी भाषा का पुट विदेशी छात्रों को समझने में मुश्किल पैदा करती है.


3. इसके स्थान पर मैथिलीशरण गुप्त की ‘पंचवटी’ या प्रेमचंद के अन्य उपन्यास ‘निर्मला’ को शामिल करने का सुझाव.


गौरतलब है कि गोदान हिंदी का कालजयी उपन्यास है जिसे ‘किसान जीवन की महागाथा’, ‘भारतीय समाज का महाकाव्य’ कहा गया है. इस उपन्यास का कई भाषाओं में अनुवाद किया गया है. इस पर बनी फ़िल्म, नाट्य-मंचन को व्यापक स्तर पर देखा सराहा गया है. अपने लेखन से हिंदी को संवर्धित करने और व्यापक हिंदी पाठक वर्ग पैदा करने वाले रचनाकार प्रेमचंद के जीवन की ‘गोदान’ सर्वोत्कृष्ठ कृति मानी जाती है. जीवन भर आमफ़हम भाषा में लिखने वाले प्रेमचंद जिन्होंने ऐसे मुद्दों को उठाया जिसमें जनमानस की गहरी रुचि थी, उन्होंने समाज में व्याप्त समस्या की जड़ को उजागर किया.


आख़िर ‘गोदान’ को समझने में दिक्कत क्यों?


1. जब हम ये कहते हैं कि हिंदी भाषा के उपन्यास में अवधी भाषा का पुट समझने में दिक्कत आ रही है तो दरअसल यह दिक्कत भाषा की नहीं मानसिकता की और नजरिये की है. हम हिंदी भाषा और साहित्य में अवधी में लिखी ‘रामचरितमानस’ जैसी लोकप्रिय रचनाओं को शामिल तो कर लेंगे, ब्रज की प्रमुख रचनाओं को शामिल कर लेंगे. लेकिन गोदान में अवधी का पुट हमें समझ में नहीं आएगा? हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास दरअसल हिंदी, अवधी, ब्रज आदि भाषाओं से निर्मित समाज और संस्कृति का इतिहास है. इसको समझने की जरूरत है.


2. ये दलीलें हिंदी के संस्कृतिकरण की तरफ इशारा करती हैं जैसे कि भारतेंदु युग में ब्रज भाषा और खड़ी बोली विवाद की राजनीति में देखा जा सकता है. हिंदी के व्यापक दायरे को समझे बगैर हिंदी-हिंदी चिल्लाना बेमानी है. जरूरत है कि हम हिंदी भाषा और संस्कृति को उसके पूरे सौन्दर्यबोध और विविधता के साथ ग्रहण करें.

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